झरोक
©the_intermittent_expressionist
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अब मन नही करता मेरी खिडकी से झाक्ने का,
क्यूंकि वो जान्ता है सामने वाली में अब तुम नही होंगी।
जब मन उदासीनता से भर उठता तो अपनी खिडकी का पल्ला हल्का सा हटाके झाक लिया करता था ,
इस उमीद में के झरोके के उस तरफ तुम होंगी।
तुमहरी ओर से मोहोब्बत की कोई गुन्जाईष थी नही,
क्योंकि जो भावनाए थी, मेरी थी और सिर्फ मुझ तक थी ।
ज़रूरी नही था मेरे लिए कि हर रोज़ तुम्हरा उनमेष दीदार हो,
अक्सर तुम्हारे कमरे में जल रही लालटेन के उजाले से झरोके पर बनी तम्हारी परछाई से काम चला लिया करता।
जब जब मौसम करवट लेता और मदमस्त हवा आनंद से कभी मेरी खिडकी से टकराती तो कभी तुमहरी से,
तो लगता एक दूत की भाँति मेरे मन का संदेश तुम्हारे मन तक पहूंचा रही हो,
और जो तुम कभी उस बीच मेरी ओर देख कर हल्के से मुस्कुरा देती तो मान लेता मेरा संदेश तुम्हे मिल गया।
किन्तु अब मौसम करवट तो लेता है, बस तुम नही होती।
मेरा मन अब उस बन्द झरोके कि भाँति फड़फड़ाता है, अकेले जिस्का शोर उस खली घर में है ।
मेरी खिडकी पर लगे मेरे एक तर्फा प्रेम के जाले मुझे साफ दिखाई देते है,
और लगता है की अब वो तभी उतरेगे जब तुम फिर आओगी और उस झरोके को खुद हटाऔगी ।
तब तक मेरा खाली मन तुम्हारी राह देखेगा।
- @the_intermittent_expressionist
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