शेर
बैठते पास हम हमारे कभी
फिर ग़म-ए-दिल क तस्किरा करते
©kalaame_azhar
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शेर
छांव मुमकिन नहीं कि तुमने तो
फूल चाहा दरख़्त के बदले
©kalaame_azhar -
शेर
किसी का कोई अपना गर नहीं तो आ लगे मुझसे
मुझे तकलीफ़ कब थी यूं कोई दीवार होने में
©kalaame_azhar -
शेर
ख़्वाइश-ए-गै़र जो किया कीजे
दिलजलों से तो मशवरा कीजे
दाग़ सारे ये कह रहे मुझसे
अपने ज़ख्मो को फिर हरा कीजे
उसकी तक़दीर में हो शहज़ादा
आप भी साथ में दुआ कीजे
मेरी बातों का सीधा मतलब है
सोच उल्टी अगर ज़रा कीजे
वक़्त की चाल से हैं सब आजिज़
अब घड़ी को भी इत्तिला कीजे
©kalaame_azhar -
शेर
रुख़्सती तेरी और कुछ भी नहीं
और इक ग़म क बस इज़ाफ़ा है
©kalaame_azhar -
शेर
और कोई बदल नहीं मुमक़िन
वक़्त लाज़िम है वक़्त के बदले
©kalaame_azhar -
शेर
गुज़ारे बदहवासी में मयस्सर जो भी थे लम्हे
अभी सब याद आता है अभी सब हाथ मलते हैं
नहीं है राबता बाक़ी न पहली सी रिवायत है
जुदा है मंजिले अपनी तो फिर क्यूं साथ चलते हैं
©kalaame_azhar -
शेर
बहलते हम थे तुझसे अब तेरी यादों के ज़िम्मे हैं
है किसका काम आख़िर ये करें है कौन देखो तो
©kalaame_azhar -
शेर
यहाँ तो दर्द के चश्में से हर क़तरा भी वाकिफ़ है
शिफा मिलती रहे मय से ये मयखाने कि कोशिश है
©kalaame_azhar -
शेर
आपसे गुफ़्तगू की चाहत थी
इश्क़ तो बाद का बखेड़ा है
©kalaame_azhar
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ekta__ 41w
ये कैसा फ़लसफ़ा है
कैसी ये कहानी है
अजीब सी उलझन में
कोई टिस पुरानी है
मेरे दिल के आईने में
एक चेहरा दिखता है
और चेहरा भी ऐसा...जो
सब से नूरानी है
एक दर्द छलकता है
आँखों से मेरी हर पल
कोई कहता है आँसू है
मैं कहती हूँ पानी है
हर रोज़ महकती है
पल पल ये दहकती है
नही आग नही है पर
तेरी याद निशानी है
मैं दिन में निखरती हूँ
रातों में बिखरती हूँ
इस बात पे सूरज दंग
चन्दा को हैरानी है
मेरे जाने के बाद
ये नज़्म सुनाना तुम
कोई पूछे, लिखी किसने?
कहना... मेरी दीवानी है
©ekta__ -
ज़ेहन के सारे पर्दे खोल दे
इल्म ऐसा हो,सारी दीवारें तोड़ दे
©neha_sultanpuri -
aparna_shambhawi 52w
रात भर चौखट पर बैठी
अलख जगाती, अमंगला
तुम्हारे प्रेम गीत से व्याकुल इस शहर की नदियाँ
मार्ग बदल लेतीं अपना।
यहाँ की गलियों में बजती शहनाई,
नहीं पहुँचती तुम्हारे आँगन ये कह कर
कि तुम्हारे गीत भ्रामक हैं,
शोक कभी प्रेम नहीं हो सकता।
उसे नहीं मालूम कि वास्तव में
तुम स्वयं ही आँगन हो उस मकान की
जिसे सभ्यताओं में "अशुभ" कहा जाता है।
काशी की नगर वधू!
तुम्हारा वैराग्य तुम्हारे देह पर लगे सिगरेट के राख बताते हैं,
तुम्हें अपवित्रा कहने वाले तुम्हें नहीं जानते
पर तुम उन सभी को जानती हो,
तुम्हें पता है उस मोहल्ले के छोटे साहब को बाटियाँ पसंद है,
तुम्हें पता है कि अगली गली के तीसरे मकां में बंद रहने वाला शख्स
आत्महत्या से लौट कर आया है,
और नीले कुर्ते वाले की जेब खाली है नौकरी से।
तुम्हारे कंधे जो गहनों के भी बोझ न उठा पाते,
उनपर इस पूरे शहर के दुःखों को कैसे टाँकोगी तुम?
यहाँ के मानचित्र पर बिखरे लाल रंग
तुम्हारी सिन्दूर रेखा है,
पूरे नगर के सुख की कामना करने वाली,
कई देवता भी तुम्हारे चौखट पर
प्रेम भिक्षा माँगते हैं।
तुम्हें ज्ञात है कि प्रेम पाना तुम्हारे अधिकार में नहीं,
परंतु सभी को समान प्रेम बाँटती तुम, कहाँ से लाती हो इतनी ऊर्जा?
ये धरती तुम्हारे सौंदर्य का ताप नहीं सह सकती,
इसलिए भी सभ्यता की आँखों में खटकती हो तुम!
देखना! तुम्हारी मृत्यु पश्चात
तुम्हारी अस्थियों से फूल उगेंगे,
मंदिर की हर मूर्ति को व्याकुलता से भर देने वाले अलौकिक सुगंध वाले,
और ये शहर,
दैव प्रतिमा पर अर्पण करने के बदले
जला देगा उन्हें भी अमंगल कह कर,
और तुम हँसती हुई चली जाओगी
यहाँ के सौभाग्य को अपने साथ ले कर,
हमेशा-हमेशा के लिए।
~ अपर्णा शाम्भवी -
hindiwriters 53w
@aparna_shambhawi जी द्वारा लिखी ये बेहतरीन पंक्तियाँ पढ़ें, सराहें और इन्हें follow करके इनका मनोबल बढ़ाएँ :) पूरी रचना अपर्णा जी की mirakee profile पर है।
बहुत उम्दा लिखा है अपर्णा जी, यूँ ही लिखते रहिये ।
आपकी रचना भी बन सकती है Post of the Day, बस ऐसे ही दिल से लिखते रहिये और @hindiwriters को अपने हिंदी लेखों के caption में ज़रूर tag करें ।
#hindi #hindiwritersHindi Post of the Day
रात की फैली चादर में
चमकता लालटेन चाँद का
या कहीं जुगनु के जलते दिये से
देख लेती मैना तोते को!
मुक्ताकाश में नक्काशी करते बादल
झुक आते धरती की ओर
आसमान के प्रेम को थोड़ा और भर कर।
-अपर्णा -
aparna_shambhawi 53w
अपनी धुरी पर घूमती पृथ्वी
लगाती है परिक्रमा सूरज के
बिना परस्पर स्पर्श के पहुँचा आता है सूरज
अपना प्रेम धरती तक अपनी ऊष्मा से,
अपने आसन पर विराजित सूर्य
बैठा देखता है पृथ्वी को आँगन में नाचती अल्हड़ स्त्री मानकर,
और अपने सुख-दुःख से अकुलाई धरती
कराती है अनुभव सूरज को जीवित होने का।
हे सूर्य मेरे!
मेरी कविता तुम्हारी धरती है,
और मैं शशि,
तुम्हें अपनी पृथ्वी का जीवन-दायक मान,
प्रणाम करती हूँ!
~ अपर्णा शाम्भवी -
aparna_shambhawi 53w
ज़माने की बातें समझने की बातें,
गाहे-बेगाहे चौराहे की बातें।
छुपी इन बातों में वे सारी बातें,
जो छपती नहीं अखबारें की बातें।
तुम सुनना नहीं और समझना ना जांना,
ये कस्बे, मुहल्ले, शरीफ़ों की बातें।
जो की है मोहब्बत तो बातें बनेंगी,
घबरइयो न सुनकर सखियों की बातें।
वे रोकेंगी तुमको के कुर्बत न जाना,
तुम झूठी सुना आना फुर्कत की बातें।
ये बातें उड़ी हैं आज छत से तुम्हारे,
जो है मेरे घर की, छतों की बातें।
फूलों की कलियों की रतियों की बातें,
सखी! मेरा मन जो ज़माने की बातें।
तुम चलना अगर तो फिर रुकना न पाकी,
मोहब्बत में कहाँ है ठहरने की बातें।
~ अपर्णा शाम्भवी 'पाकी' -
जान अपनी बचानी अब हो गई मुश्किल यहां
लोग पीछे पड़ गए हैं सब कुछ मिटाने के लिए
#arungagat -
neha_sultanpuri 54w
है ज़माने में और भी ज़रिये वक़्त काटने को
दिल न जाने क्यों तेरी आरज़ू साथ रखता है
बहलने को बहल जाता है दिल,चाँद से भी
मगर अंधेरों में ये तेरी उम्मीद साथ रखता है
यूँ तो कह देते है हम हाल-ए-दिल ज़माने से,मगर
इन मिसरों से गुजरती टीस,दिल अपने साथ रखता है
©neha_sultanpuri -
aparna_shambhawi 53w
तितली के निस्पृह पंख
छू लेते धरती पर बिखरी
हरसिंगर की पत्तियों को
जिनका अंत सफल हो जाता,
स्वर्ग से अज्ञात प्रकाश वर्ष की दूरी पर भी!
सवेरे की खिड़की पर
कोहनी टिकाए बैठा लाल सूरज
झाँकता है भीतर चोरी-चुपके
और दे जाता है थपकी नन्ही गवरैया के माथे पर।
किसी सुनसान बियाबान के हृदय में
छिपा हुआ तालाब
जिसमें खेलता है हँसों का जोड़ा
तो पत्ते भर जाते रंगों से और दे जाते नल-दमयन्ती की उपमा।
रात की फैली चादर में
चमकता लालटेन चाँद का
या कहीं जुगनु के जलते दिये से
देख लेती मैना तोते को!
मुक्ताकाश में नक्काशी करते बादल
झुक आते धरती की ओर
आसमान के प्रेम को थोड़ा और भर कर।
मैंने सोचा इक बार को यूँ बँटवारा करते हैं
कि हो जाओ
तुम तितली, मैं पारिजात!
तुम गवरैया, मैं सूरज!
हम-तुम हँस, नल-दमयन्ती,
तुम तोता, मैं मैना!
तुम आकाश, मैं धरती!
तुम यथेष्ट! यथोचित हर रूप शोभायमान तुमपर!
पर इतने विकल्पों के बाद भी
मैंने चुना खुद को कविता होना,
कि फूल मुरझाएँगे,
सूरज डूबेगा,
नल भी होगा गिरफ्त में मृत्यु के,
होगी अमावस कभी न कभी,
कभी मेघ-विहीन होगा आकाश,
पर मैं सदैव पूर्ण रहूँगी तुमसे,
के वियोग मुझे तुमसे दूर लाएगी भी तो यहीं ठहरेगी,
इसी कविता में!
~ अपर्णा शाम्भवी -
aparna_shambhawi 54w
सप्तवर्णी के रंग
निब से पोर तक
अभी भी उफ़ान भरते हैं कलम में
कि लिख पाएँ कई वर्णों में बिखरे हमारे प्रेम को,
पर एक बूँद स्याही की
अटक चुकी है निब पर
जिसने मेरे सूखते आँसुओं को सहोदर मान
उड़ने दिया खुद को मुक्ताकाश में,
और विराम लगा दिया
समस्त भाव-तरंगों पर!
पुरानी डायरी के दिसम्बर के पर्ण
जिन्हें बचा रखा था मैंने तुम्हारे लिए
उनका श्वेत वर्ण वृद्ध हो चुका है
हमारे मौन में घुली रिक्तता लिखते-लिखते।
वो बस्ता जो उस डायरी का
सबसे सुरक्षित स्थान था
उसने त्याग दी है अपनी निजता चेन तोड़कर,
उसे विश्वास है कि उसकी प्रदत्त गोपनियता हेतु
अब कोई गोपनीय छंद नहीं।
वह घड़ी जिसने तुम्हारी प्रतीक्षा में
हर क्षण मेरा साथ दिया था,
आज रुक गई है प्रतीक्षा से थक कर,
आठ से नौ के बीच अटकती उसकी सूई
जैसे विनती करती है
कि नई बैट्री लगाने के बजाय
उसे अब विश्राम करने दिया जाए।
वस्तुतः हर चीज़ यहाँ की
ऊब चुकी है मुझसे
या शायद मेरी निरसता से।
तुमसे दूर मैं वह खिड़की हूँ
जो हर सुबह सूरज की प्रतीक्षा में जागती है
और सो जाती है सुनकर कि ढल चुका है सूरज।
वर्षों से बंद पड़ी वह खिड़की
एक रोज़
तोड़ देती है अपना दम एकांत के आलिंगन में,
उस टूटी हुई खिड़की से चला आता है
सूरज मचलते हुए उस बंद कमरे में
और उग आता है इक नन्हा पौधा
सैकड़ों सिगरेट की राख से!
~ अपर्णा शाम्भवी
