ये पुरपेच गलियाँ, ये बदनाम बाज़ार
ये ग़ुमनाम राही, ये सिक्कों की झन्कार
ये इस्मत के सौदे, ये सौदों पे तकरार
जिन्हें नाज़ है हिन्द पर वो कहाँ हैं
ये सदियों से बेख्वाब, सहमी सी गलियाँ
ये मसली हुई अधखिली ज़र्द कलियाँ
ये बिकती हुई खोखली रंग-रलियाँ
जिन्हें नाज़ है हिन्द पर वो कहाँ हैं
ये फूलों के गजरे, ये पीकों के छींटे
ये बेबाक नज़रें, ये गुस्ताख फ़िकरे
ये ढलके बदन और ये बीमार चेहरे
जिन्हें नाज़ है हिन्द पर वो कहाँ हैं
ज़रा मुल्क के रहबरों को बुलाओ
ये कुचे, ये गलियाँ, ये मंजर दिखाओ
जिन्हें नाज़ है हिन्द पर उनको लाओ
जिन्हें नाज़ है हिन्द पर वो कहाँ हैं
- साहिर लुधियानवी
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penholic_shan 64w
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penholic_shan 66w
Even the most beautiful people aren't able to please 0.1% of the the inner happiness that your "hi" gave me a few years back
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शमा
धड़कनें तेज और
हाथों में कंपकंपी हैं,
दिल-ए-हाल जता दूं क्या।
घर की गलियां जो,
गर भूल गई हो, कहो
तो अखबार में पता दूं क्या
तेरे इंतज़ार में जलाई हैं शमा,
अंधेरे में रोना हैं मुझे,
अब उसे बुझा दूं क्या।
इक दफा कह दे तू,
कि अटकी हूं रास्तों में,
सौ और शमा जला दूं क्या।।
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penholic_shan 87w
जो मेरी रूह की बैचेनी को सिर्फ जून की गर्मी समझता हैं , उसे मेरी अगस्त की बारिश सा सुख क्यों मिले,
जो मेरी खामोशी को सिर्फ मन की शांति समझता हैं,
उसे मेरे आह्लाद में बात करने का हक़ क्यों मिले,
जो मेरी बढ़ती धड़कनों को महज डर बता कर चुप करा दे, उसे मेरे अनगिनत छोटी खुशियों से भरा घर क्यों मिले,
जो मेरे जीवन के उतार-चढ़ाव को अपनी कथा का हिस्सा भी न समझे, उसे मेरे उपन्यास का छोटा किरदार क्यों मिले......
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penholic_shan 98w
कुछ राज़ खुलने वाले थे,
कुछ आज खुलने वाले थे,
कुछ वाह-वाही भी लूटेंगे,
गहरे राजों को भूलेंगे,
उन आठो के घर पर क्या बीता,
उन्हें फ़रक नहीं कौन जीता-मरता,
फिर से कुछ ऐसा हो जाएगा,
वो कुछ घर वाले फिर रो लेंगे,
वो कुछ सुकून से सो लेंगे....
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"जीत-हार"
वो जीत भी क्या जीत हैं,
कुछ लम्हों की जहाँ हार नहीं,
मैं ढाल हूँ, तलवार हूँ,
पर जिंदगी की हार नहीं,
मैं राग हूँ, मैं आग हूँ,
अंधकार में उजियार हूँ
मैं गिर पड़ा आज ताश सा,
निर्वस्त्र और हताश सा
मैं उठ के कल फिर जीत लूँगा,
ये जिंदगी धिक्कार नहीं,
चन्द कौड़ियों में ये न बिक सके,
जीवन है, कारोबार नहीं,
ये बेशकीमत ही कला हैं,
कोई सस्ता इश्तहार नहीं,
वो कह रहे तू झुक भी जा,
डूबेगा,थोड़ा रुक भी जा,
जो डूबा ग़र तो सीख लूंगा,
इक-न-इक दिन जीत लूंगा,
जा कह दो उन लाचारों से,
मैं अपनी कश्ती देख लूंगा,
तुम मेरे खैवनहार नहीं,
मैं कश्तियों का यार हूँ,
साहिल मुझे स्वीकार नहीं।।
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"आफ़ताब"
थका मन मुझसे कह रहा कि, रुक, दो पल के लिए ये शादाब देख लूँ,
पर मेरी मन्ज़िल इतनी करीब नहीं कि, दिन में ही ख्वाब देख लूँ,
वो बोले कि नए साल में बन्द क़िस्मत के ताले खुल जाएंगे,
तो सोचा,
क्यों न फिर, आज संघर्ष का आखिरी 'आफ़ताब' देख लूँ....
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penholic_shan 129w
जरूरी नहीं कि सबकुछ शब्दों में समझाया जाए,
बता दिया उन हैवानों ने 'भारत' माँ को कैसे रुलाया जाए,
झखझोर गयी मानवता, जब दरिंदे बोले "उसे जिंदा जलाया जाए"
मानव रुपी भेड़ियों से 'निर्भया' और 'प्रियंका' को कैसे बचाया जाए,
उस दर्द में चीखती मां की बेटी को इंसाफ कैसे दिलाया जाए,
बिना मोमबत्ती जलाके भी अब कुछ बदलाव लाया जाए,
प्रशासन की नींद खुले और न्याय की पट्टी को खोला जाए,
या फिर,
अब इस अधर्म का नाश करने के लिए स्वयं 'कल्कि' का इंतज़ार किया जाए!!
©penholic_shan -
मेरे हिस्से के सन्नाटे, अब और भी गुमसुम से रहते हैं,
पहले तांता था दुनिया का, बेजान से चेहरे अब न खिलते हैं,
बातों के लिए अब लोग नहीं हैं,
सब मोबाइल में ही रहते हैं,
गांवों में रहके देखा मैंने, सब
चाय की चुस्की साथ में लेते हैं,
ट्रैफिक में अटका, तब सोचा मैंने,
क्या इस अशांति को ही जीवन कहते हैं
मॉडर्न बनने की इस ख्वाहिश में,
हम इस उधेड़बुन में ही रहते हैं,
उन ख्वाबों को पूरा करने की कोशिश में,
हम जिंदगी यूँ अंधेरे में ही जीते हैं,
कब खत्म होगा ये इच्छाओं का महासागर,
कब हम सुखी तराने जीयेंगे,
क्या यही यहां का तरीका हैं,
क्या यही यहां का सलीका हैं,
कोई तो आ के बतला दे,
ये फलसफा कोई तो सिखला दे,
चन्द लम्हों की इस जिंदगी को, खुश हो कर कैसे जीते हैं
©penholic_shan -
"सरकार"
दुश्मनी में क्या रखा हैं, ये हैं हंगामों का ज्वार ,
मैं इश्क़ से जीतूंगा तुम्हें, करलो तुम थोड़ा ऐतबार,
करोडों की भीड़ हैं पर सोचो एक बार,
एक अरसे से सिर्फ तुम्हें संजोया तसव्वुर में,चाहे लाख किया तुमने इनकार,
चाहो तो कर दूं मैं फिर से इज़हार,
तुम्हारी जुल्फ़ों में ये दिल एक अरसे से हैं फरार,
दुनिया की तरह तेज़ नहीं हूं, कुछ अलग हैं मेरा प्यार,
खामोश रहूंगा जनता सा, बन जाओ न तुम मेरी सरकार।।
©penholic_shan
