हाकिम
हर तरफ
हाहाकार और
लाशों का ढ़ेर
क्या क़ब्रिस्तान
क्या श्मशान
खामोशी दूर तलक थी
कुछ लोग थे जो अब भी
दिन रात किसी और के
काम आ रहे थे
कुछ और भी लोग थे
जो अब भी नंगे हाकिम को
कपड़े पहना रहे थे
पर हाकिम को किसकी
परवाह
वो अपने सपनों की महल
तैयार करने में मशगूल था
वो अपने सफेद ढाढ़ी में
खुद को बेगुनाह बता रहा था
पर हाकिम था बड़ा चालक
अपने सिपहसालार को
ख़बर भेजवाया
किस कदर
सच को झूठ
झूठ को सच
बनाना है
अपने ज़िम्मेदारी कैसे भी
किसी और के कंधे
पे रख देना है
उसे पता था उसके मीठे
बोली को लोग सच मान
लेंगे और फिर उससे
कोई भी सवाल ना करेंगे
हुआ भी यही
खून तो सुर्ख़ था
पर जादूगर तो हाकिम
ही निकला
ना जाने कैसे उसके
सफेद कुर्ते में
सुर्ख़ रंग भी कहीं
गुम सा हो गया
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