जी से अपने उकता गया हूँ मैं,
ख़ुद के कितने करीब आ गया हूँ मैं...
बा'अद मुद्दत कोई ग़ज़ल लिखी उसपे,
फिर उसको जला गया हूँ मैं...
अपने हिस्से के अब तुम जानो,
मेरे हिस्से के धोख़े खा गया हूँ मैं...
मुतरीब कोई साज़-ओ-ग़म छेड़,
फिर तेरे कूचे को आ गया हूँ मैं...
तुमको ये ग़ुमां हो के शायद,
तेरे ग़म से बाहर आ गया हूँ मैं...
कहनेवाले ये कहते हैं 'आज़म',
के ज़माने भर मे छा गया हूँ मैं...
©azam_dehlvi
-
azam_dehlvi 31w