रजस्वला
स्त्री बैठी रही
चार दीवारी में छुपकर
वह महीने के
कालकोठरी में दंड भुगत
रही थी, वो सृजन
के अध्याय का आरंभ
कर चुकी थी, और
उसके उदर से स्वर
निकल रहा था और उसका
रंग लाल था।
स्त्री समस्त पीड़ाओं को
कुंडली मे बांध
कर सो जाती थी,
अपने शरीर को
सर्प की भांति लपेट
लेती थी, जिससे
पीड़ाओं के विष
रात्रि विश्राम के
समय परेशान न कर सकें।
रक्त के कण
उसके मुख को लाल
कर देते थे, क्या करे
लज्जा के कारण उसका
मुख लाल हो जाता था,
भोजनालय, मंदिर
से वंचित रह कर
वह रजस्वला स्त्री
रीति व नियमों की
गठरी को सूतक
मानती थी, लेकिन स्वयं को
जननी का पुरस्कार
किलकारी के बाद देती थी।
©rangkarmi_anuj
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