ग़ज़ल
खुदा तक जो पहुंचे, वैसा एक दर बनाते हुए,
थक गया हूं देखो मैं, मकां को घर बनाते हुए!
कौन कहता है कत्ल बस,हाथो से ही होता है,
देखे है लोग मैंने, यूं जुबां से ज़हर बनाते हुए!
वो पीपल की छांव , वो लोगो की इंसानियत,
खो दिया देखो क्या,गांव को शहर बनाते हुए!
कैसे बताऊं के क्या,होती है माँ की परिभाषा,
खुदा भी हार गया , 'माँ' की नज़र बनाते हुए!
©dipps_