ग़ज़ल
गया बेकार फ़िर, ये आँख का ज़मज़म हमारा
हुआ गुमनाम फ़िर वो कल्ब करके नम हमारा
फकत हर बार अपने ही किसी ने,. दर्द बख्शा
कभी गर दर्द हो पाया ज़रा भी,... कम हमारा
तवक्को थी हमें भी कि,...रहेंगे बन के हमदम
बड़े ही दम से हमदम ने,. निकाला दम हमारा
मलाज़ो में ज़रा भी ठौर, मिल पाया ना हमको
खुदा घर यार सोचें,.क्या ही हो मक़्दम हमारा
मुआलिज,इस खुदा ने ,खूब ढ़ाया कहर मुझपे
किया फ़िर से यहाँ बर्बाद, सब दमखम हमारा
बिना गज़लों के यूँ तो बात हो सकती नही थी
पड़ा चुप-चाप है,... बेजान हो "सूर्यम" हमारा
©SURYAM MISHRA