ज़िक्र
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ज़िक्र-ए-मोहब्बत से दिल कुछ तो सुकूँ पाता।
उसकी वफ़ा के किस्से सुनाता तो यकीं आता।।
चलो बेसाख़्ता ही कुफ़्र से तौबा तो की उसनें।
बला की तोहमतें सर थीं वो कैसे सामने आता।।
रहा तनहा मग़र उसकी ज़ुबां ख़ामोश सी क्यूँ है।
जो कोई जिक्र कर लेता जैसे दम निकल जाता।।
करोगे इस क़दर शिक़वे नहीं मालूम था उसको।
दिले नाज़ुक की बातें हैं कलेजा मुँह को है आता।।
जो कभी आईन दिल के आईने में देख लेते हम।
खोया था वो मिल जाता आगे भी संभल जाता।।
'अयन' इतनी सी हसरत है मिल पाएं ख़ुदी से भी।
दहर की सैर पर काश! ये अरमां भी निकल जाता।।
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©deovrat 'अयन' 22.04.2022
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