असहाय निर्धन
का मैं भोग लगाऊँ मुरारी,
निर्धन घर बस भूख,
ना खाने को अन्न प्रभु,
ना सुख साधन का योग।
बहुत विचित्र दशा है गोविंद,
तन तृष्णा की पीड़,
कैसे कहूँ दशा अपनी मै,
तू सब जाने रघुवीर।
कर्म करूँ पर तन ना शक्ति,
मन ही है बलवान,
मन के बल कुछ काम करूँ,
पर तन निर्बल नादान।
गिरती आयु ढलती काया,
कंधे पर सब बोझ,
सबकी आँखे देखे मुझको,
कुछ पाने की सोच।
अब तुम ही बोलो बनवारी,
क्या ही करूँ उपाय,
या तो करूँ विलाप प्रभु,
या मृत्यु कंठ लगाए।
@लवनीत।
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