ग़ज़ल ( बद्दुआ मैं )
वज़्न - 2122 2122 2122 2212
फिर किसी दिन दास्ताँ फिर कोई सद'मा बन जाऊंगी
मैं अके'ली इस मकाँ में कोई सहरा बन जाऊंगी
इन दुआओं ने कई तूफां उठाये है हाथ में
माँ मिरी तक'दीर ऐसी है, मैं साया बन जाऊंगी
लाख धागे मन्नतों के बांध आयी हूँ दर किसी
मैं यक़ीनन कोई पत्थर, कोई का'सा बन जाऊंगी
खिड़कियों से दूर कब तक देखती है कोई निगाह
ग़ालिबन वो पल यहीं है, जब मैं पर्दा बन जाऊंगी
अब तो सूरत भी मिरी बस उन हरीफों सी लगती है
ये बुरा होगा मिरी माँ, गर मैं शीशा बन जाऊंगी
©parle_g
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parle_g 29w
मन के मेरे ये भरम
कच्चे मेरे ये करम
लेके चले हैं कहाँ
मैं तो जानूं ही ना
इर्शाद क़ामिल