अपनी धुरी पर घूमती पृथ्वी
लगाती है परिक्रमा सूरज के
बिना परस्पर स्पर्श के पहुँचा आता है सूरज
अपना प्रेम धरती तक अपनी ऊष्मा से,
अपने आसन पर विराजित सूर्य
बैठा देखता है पृथ्वी को आँगन में नाचती अल्हड़ स्त्री मानकर,
और अपने सुख-दुःख से अकुलाई धरती
कराती है अनुभव सूरज को जीवित होने का।
हे सूर्य मेरे!
मेरी कविता तुम्हारी धरती है,
और मैं शशि,
तुम्हें अपनी पृथ्वी का जीवन-दायक मान,
प्रणाम करती हूँ!
~ अपर्णा शाम्भवी
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